क्या आपने कभी सोचा है कि जो बंगाल एक समय देश की औद्योगिक ताकत हुआ करता था, आज वहां की फैक्ट्रियाँ बंद क्यों हो रही हैं? कंपनियाँ एक-एक करके वहां से अपना बोरिया-बिस्तर समेट क्यों रही हैं? जी हां, बात हो रही है पश्चिम बंगाल की, और वो भी ममता बनर्जी के 14 साल लंबे राज की।
6688 कंपनियां—जी हां, कोई छोटी संख्या नहीं—2011 से लेकर अब तक बंगाल छोड़कर दूसरी जगह जा चुकी हैं। सोचिए, हर साल औसतन 475 कंपनियां राज्य को अलविदा कह रही हैं। इनमें से 110 तो ऐसी थीं जो स्टॉक मार्केट में लिस्टेड थीं! इसका मतलब साफ है – सिर्फ छोटे-मोटे व्यापार नहीं, बड़ी-बड़ी कंपनियां भी बंगाल छोड़ रही हैं।
पलायन के पीछे की तस्वीर और आंकड़े
2011 से 2025 के बीच राज्य से पलायन करने वाली 6,688 कंपनियां बताती हैं कि बंगाल का कारोबारी माहौल अब भरोसेमंद नहीं रहा। महाराष्ट्र, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात और राजस्थान जैसे राज्यों ने इन कंपनियों को खुली बाहों से स्वागत किया। अकेले महाराष्ट्र में 1,308 कंपनियां शिफ्ट हुईं, दिल्ली ने 1,297 और उत्तर प्रदेश ने 879 कंपनियों को अपनी ओर खींच लिया। सवाल ये नहीं कि ये राज्य अच्छे हैं—सवाल ये है कि बंगाल इन कंपनियों को रोक नहीं पाया।
बंगाल से मोहभंग की सबसे बड़ी वजह – भरोसे की कमी
कंपनियों को सबसे पहले चाहिए होता है भरोसेमंद माहौल – जहां उन्हें पता हो कि सरकार उनके साथ है, नियम-कानून साफ हैं और कल कोई नया पेंच नहीं फंसेगा। लेकिन बंगाल में उल्टा हो रहा है। उद्योगपतियों को डर है कि कभी भी कोई आंदोलन, कोई राजनीतिक दखल, कोई अफसरशाही का झटका उनके काम को चौपट कर सकता है।
सिंगूर की टीस अब भी ज़िंदा है
याद कीजिए सिंगूर को। टाटा ने जब वहां नैनो कार फैक्ट्री लगाई थी, तो लगा था कि बंगाल दोबारा दौड़ेगा। लेकिन राजनीतिक विरोध और आंदोलन ने वो सपना चकनाचूर कर दिया। टाटा को प्रोजेक्ट बंद करना पड़ा और गुजरात चले गए। और उसके बाद क्या हुआ? बाकी निवेशकों को भी साफ संदेश मिल गया – बंगाल रिस्की है।
रोजगार की उम्मीदें भी हो रही हैं ध्वस्त
इसका असर सिर्फ उद्योगों पर नहीं, नौजवानों पर भी पड़ा है। पढ़े-लिखे लड़के-लड़कियाँ अब कोलकाता से बंगलुरु, दिल्ली या हैदराबाद की ओर भाग रहे हैं। यहां नौकरी नहीं, मौका नहीं, और आगे कोई रास्ता नहीं दिखता। जो यहीं रह जाते हैं, वो या तो बेरोजगारी झेलते हैं या किसी स्कैम में फंसते हैं।
सरकार क्या कर रही है?
सरकार कहती है – "बंगाल ग्लोबल बिजनेस समिट" हो रहा है, निवेश आ रहा है, एमओयू साइन हो रहे हैं। लेकिन हकीकत ये है कि 80-85 प्रतिशत प्रोजेक्ट्स सिर्फ कागजों पर हैं। जमीन पर कुछ नहीं। एकल खिड़की योजना (Single Window Clearance) भी सिर्फ नाम की है – हकीकत में कंपनियों को 10 दरवाजे खटखटाने पड़ते हैं।
क्या कोई रास्ता है?
जरूर है। लेकिन उसके लिए सबसे पहले नीयत बदलनी होगी। सरकार को व्यापारियों से दुश्मनी छोड़कर उन्हें भागीदार बनाना होगा। पारदर्शिता, भरोसेमंद नीतियां, और उद्योग के प्रति सकारात्मक रवैया जरूरी है। जब तक ‘कट मनी’ और ‘ठेकेदारी’ की संस्कृति पर लगाम नहीं लगेगी, तब तक कोई बड़ा निवेशक बंगाल की ओर नहीं देखेगा।
बंगाल को फिर से बंगाल बनने दो
बंगाल सिर्फ कला, संस्कृति और राजनीति का केंद्र नहीं, यह कभी औद्योगिक ताकत भी हुआ करता था। लेकिन ममता राज में जो गिरावट आई है, वो चिंता का विषय है। अब वक्त आ गया है कि सच्चाई को स्वीकार कर, बदलाव की ओर कदम बढ़ाया जाए। वरना ये पलायन रुकने वाला नहीं – और आने वाले सालों में हम केवल पुरानी यादें ही बटोरते रह जाएंगे।
अगर आप चाहते हैं कि बंगाल फिर से उठे, तो इस सच्चाई पर चर्चा ज़रूरी है। क्योंकि बदलाव की शुरुआत सवालों से होती है।
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