आएगा तो मोदी ही और मोदी आ ही गया। मोदी का चेहरा, नीतियों के चरित्र और शाह की चाल से बीजेपी ने 2014 की लहर को 2019 में सुनामी में तब्दील कर दिया जिसकी वजह से बीजेपी अपने दम पर 300 के करिश्माई आंकड़ा को पार कर गयी।
यह एक ऐतिहासिक जीत है जिसमें मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने बीजेपी को फिर से शिखर पर पहुंचा दिया। यह जीत चुनावी प्रबंधन की कुशलता की जीत है जिसने बेहतरीन तरीके से अभेद चक्रव्यूह को तोड़कर अभूतपूर्व विजय प्राप्त की है। किसी को एहसास नहीं था कि नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार को दुबारा सत्ता का स्वाद इतने बड़े अंतर से चखने को मिल जाएगा। यह कोई आसान काम नहीं था। नरेंद्र मोदी और अमित शाह ही नहीं बल्कि बीजेपी ने पूरी पार्टी को पूर्ण रूप से लोकसभा चुनाव 2019 के लिए झोंक दिया था। और इन सबके मेहनत का ही परिणाम है कि एनडीए ने असंभव को संभव कर दिया।
ऐसा नहीं है कि मोदी ने 2014 में किए गए सारे चुनावी वायदे को पूरा किया। फिर भी देश की जनता ने उन्हें दोबारा सिर-माथे पर बिठाया। इसके पीछे की वजह थी - वह देश के करोड़ों लोगों को समझाने में कामयाब हो गए कि वह उनकी भलाई के लिए ईमानदारी से मेहनत कर रहे हैं। साथ ही राष्ट्रवाद के मुद्दे पर भी समझाने में सफल रहे कि मोदी के नेतृत्व में ही दुश्मन से देश को महफूज रखा जा सकता है। और मोदी के लिए राष्ट्र ही सर्वोपरि है। नेहरू और इंदिरा के बाद मोदी पूर्ण बहुमत के साथ लगातार दूसरी बार सत्ता के शिखर पर पहुंचने वाले तीसरे प्रधानमंत्री बन गए हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि कांग्रेस की बढ़ती मुस्लिमपरस्ती के कारण हिंदुओं को मोदी के रूप में एक फरिश्ता दिखाई दिया, जिससे हिंदू एकजुट हुआ। गुजरात की कुछ घटनाओं ने मोदी की छवि प्रखर हिंदूवादी की बना दी थी। पहली बार हिंदू समाज जातियों से निकल कर एकजुट हुआ। भारत की जनता को मोदी में हिंदू हृदय सम्राट की छवि दिखी और जनता को लगा कि देश में हिंदुत्व का उभार होगा तो वो मोदी के हाथों ही होगा। 2019 की जीत को हिंदुत्व की जीत कहा जा सकता है। इसमें केवल ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया ही नहीं बल्कि दलित, यादव, आदिवासी, सब ने मिल कर भाजपा को वोट किया।
इसके अलावा केंद्र सरकार ही नहीं बल्कि 16 राज्यों में मौजूद भाजपा गठबंधन पर भ्रष्टाचार का कोई संगीन आरोप नहीं लगा और विवादों से बची रही। भारतीय राजनीति को बरसों बाद ऐसा नेता मिला, जिसमें जातियों के मकड़जाल को तोड़ने का माद्दा है। मोदी राजनीति के वो खिलाड़ी है जो देश की विविधता और उसके बहुलतावादी रवैये को जानते हैं। यही वजह है कि चरण-दर-चरण उनके भाषणों में तब्दीलियां आती गयी।
लोकसभा 2019 का चुनाव शुरुआत से ही कठिन माना जा रहा था। लोगों को पूर्वानुमान था कि इस बार नरेंद्र मोदी को दुबारा सरकार बनाने में लोहे के चने चबाने पड़ेंगे। जिस कदर राहुल गांधी समेत सभी विपक्षी दल मोदी को हराने के लिए आ खड़े थे, उससे प्रतीत होने लगा था कि शायद इस बार मोदी को हार का सामना न करना पड़े। या जीतती भी है तो उसे बहुमत पूरा करने के लिए एड़ी चोटी का उसे जोर लगाना पड़े। लेकिन इन सबको नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने फिर से धता बताते हुए पांच साल के स्थायी सरकार को सुनिश्चित किया और फिर से नरेंद्र मोदी के प्रयोग को जनता ने स्वीकार कर लिया है।
नरेंद्र मोदी और बीजेपी की इस रिकाॅर्डतोड़ जीत के पीछे भी एक अथक परिश्रम की कहानी है। करीब 2 महीने के लंबे चुनाव के लिए बीजेपी ने जबरदस्त प्लानिंग कर जोरदार मेहनत की। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 142 रैलियों को संबोधित किया और 4 रोड शो किए। जिसमें उन्होंने 1 करोड़ 50 लाख लोगों से सीधा संपर्क किया। प्रधानमंत्री मोदी ने अकेले ही चुनाव प्रचार के लिए एक लाख 5 हजार किलोमीटर की यात्रा की। इस बारे में स्वयं पीएम मोदी ने कहा कि उसका एक भी प्रोग्राम कैंसल नहीं हुआ। इसका मतलब उन्होंने जी-तोड़ मेहनत की। जबकि भाजपा के सुप्रीमों अमित शाह ने जनवरी से मई महीने तक 312 लोकसभा क्षेत्र को कवर किया और 161 चुनावी सभाओं को संबोधित किया। इसके अलावा 18 रोड शो किए। इस दौरान उन्होंने 1 लाख 58 हजार किलोमीटर की यात्राएं की। इतना ही नहीं बीजेपी के राष्ट्रीय स्तर के नेताओं ने 1500 से ज्यादा जनसभाएं की। 2566 विधानसभाओं में 3000 नेता पिछले दो साल से लगे हुए थे। 3800 विधानसभाओं में कम से कम 4-4 जनसभाएं की। पिछले 5 साल में बीजेपी ने कार्यकर्ताओं के दम पर 8 लाख 63 हजार बूथों को मजबूत किया।
इस बार के आम चुनाव में बीजेपी उन 120 सीटों पर ज्यादा फोकस किया जहां वो पिछली बार हारे थे। इसके लिए 25 नेताओं को जिम्मा दिया गया था। ‘मैं भी चौकीदार’ नारा काफी चर्चित रहा। अमित शाह को यह उम्मीद थी कि इसका बेहतरीन परिणाम आएगा। और हुआ भी हुआ। बीजेपी की मेहनत रंग लायी।
बीजेपी ने यूपी के बाद सबसे ज्यादा पश्चिम बंगाल पर फोकस किया। चुनावी रैलियों को देखें तो सबसे ज्यादा सांसद देने वाला यूपी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लिस्ट में टाप पर था। दूसरे नंबर पर पश्चिम बंगाल, जहां प्रधानमंत्री ने सबसे ज्यादा रैलियों को संबोधित किया। पश्चिम बंगाल में लोकसभा की 42 सीटें हैं जो महाराष्ट्र (48) से कम और बिहार (40) के लगभग बराबर है, लेकिन पीएम मोदी का फोकस बंगाल पर ज्यादा रहा। मोदी ने महाराष्ट्र और बिहार में सिर्फ 8-8 रैलियों को संबोधित किया लेकिन पश्चिम बंगाल में उन्होंने 17 रैलियों को संबोधित किया।
कुल मिलाकर देखें तो मोदी-शाह ने राहुल-प्रियंका गांधी से कहीं ज्यादा रैलियां की। पीएम और अध्यक्ष ने मिलकर 303 सभाएं की तो वहीं राहुल-प्रियंका ने केवल 191 सभाएं की। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव के दौरान पार्टी के प्रचार अभियान का मोर्चा संभालते हुए करीब साढ़े तीन महीने की अवधि में करीब 150 जनसभाएं, रैलियां और रोडशो किए। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 128 रैलियों को संबोधित किया। राहुल गांधी ने मध्य प्रदेश में सबसे ज्यादा 16 रैलियां की। दूसरे नंबर पर राजस्थान रहा, जहां उन्होंने 10 सभाएं कीं। इससे जाहिर होता है कि कांग्रेस अध्यक्ष का जोर पिछले विधानसभा चुनावों में पार्टी के शानदार प्रदर्शन को आम चुनाव में भी भुनाने की कोशिश पर रहा। राहुल गांधी ने दक्षिणी राज्यों में भी पीएम मोदी के मुकाबले ज्यादा रैलियां कीं। उन्होंने दक्षिण में खास तौर पर केरल (जहां की वायनाड सीट से खुद लड़ रहे हैं) और कर्नाटक पर जोर दिया।
हरियाणा के चैटाला, दिल्ली में केजरीवाल, उत्तर प्रदेश में मायावती-अखिलेश, बिहार में तेजस्वी-कुशवाहा, मांझी-पप्पू यादव, असम में बदरुद्दीन अजमल आदि को जबरदस्त धक्का लगा है। बंगाल में जिस तरह ममता बनर्जी को झटका लगा है, वह बताता है कि अगले विधानसभा चुनाव में दीदी के सामने गढ़ बचाने का खतरा पैदा हो गया है।
चार महीने पहले कांग्रेस ने जिन राज्यों में चुनाव जीते थे जैसे कि राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़, वहां पर भी उन्हें जबरदस्त धक्का लगा और बीजेपी बाजी मार ले गयी। ऐसे में कांग्रेस पार्टी की दुर्गति आश्चर्यजनक है। कांग्रेस केरल के अलावा कहीं भी दहाई का आंकड़ा नहीं छू सकी है। बड़े-बड़े सितारे ढ़ह गए।
पीएम मोदी ने पिछली बार के मजबूत गढ़ों (यूपी, राजस्थान आदि) के बचाए रखने के साथ-साथ पार्टी के लिए नई जमीन तैयार करने (पश्चिम बंगाल) पर सबसे ज्यादा काम किया। तो वहीं कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने उन्हीं राज्यों पर जोर दिया जहां कांग्रेस ने यूपी को छोड़कर हाल के चुनावों में बेहतर परिणाम दिया था। कुल मिलकार चुनाव प्रचार में राहुल गांधी ने प्रयोगों पर ज्यादा जोर नहीं दिया। बल्कि बीजेपी नए व पुराने दोनों जगह पर जोरदार और नीतिगत तरीके से काम किया।
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी केरल के वायनाड लोकसभा सीट से चुनाव जीत चुके है, जबकि उत्तर प्रदेश की अमेठी लोकसभा सीट पर उन्हें हार का सामना करना पड़ा है। बीजपी की स्मृति इरानी ने उन्हें बड़े अंतर से हराया है। अमेठी हारने के साथ ही कांग्रस और राहुल गांधी के लिए बड़ा झटका यह भी है कि एक बार फिर से लोकसभा में उन्हें विपक्ष के नेता का पद नहीं मिल सकेगा। ऐसा इसलिए क्योंकि कांग्रेस को इसके 55 से कम सीटें मिली हैं। जबकि परंपरा के मुताबिक, विपक्ष के नेता का पद सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को तो मिल सकता है, लेकिन उस दल की लोकसभा में 10 फीसदी सीटें यानी कम से कम 55 सीटें होना जरूरी हैं।
देखा जाए तो कांग्रेस का प्रियंका गांधी को चुनावी मैदान मंे लाने का दांव भी पार्टी के ऊपर भाड़ी पर गया। वो कांग्रेस के नीचे से खिसकती जमीन को बचा नहीं सकी। जनता को कांग्रेस की न्याय योजना पर भरोसा नहीं था और पूछ रहे थे कि क्या ऐसा होगा। दूसरा बड़ा कारण ये है कि कई जगहों पर कांग्रेस का संगठन एकदम खत्म सा हो चुका है।
चूंकि एनडीए ने मैदान मार लिया है। तो ऐसे में नरेंद्र मोदी अपने दूसरे कार्यकाल में जनता की उम्मीदों पर कितना खरा उतर पाते हैं, यह देखने वाली बात होगी। वहीं कांग्रेस और विपक्षियों को गहन आत्मचिंतन की जरूरत है कि आखिर बीजेपी में वो क्या खासियत थी कि उन्हें प्रचंड बहुमत मिला। और उनमें क्या खामी है जिसके कारण उनके पैर के नीचे की जमीन खिसक गयी।
- निर्भय कर्ण
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