भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस—वह पार्टी जिसने देश पर दशकों तक शासन किया और देश के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक ढांचे पर गहरी छाप छोड़ी—आज अपने इतिहास के सबसे गहरे और दर्दनाक संकट से गुजर रही है। हालत यह है कि जब-जब चुनाव आते हैं, कांग्रेस की हार लगभग तय मानी जाती है। लोकसभा हो या विधानसभा या स्थानीय निकाय, हार की फेहरिस्त लगातार लंबी होती जा रही है। आज यह पार्टी केवल चुनाव नहीं हार रही, बल्कि अपनी पहचान, अपना प्रभाव और अपना आत्मविश्वास तीनों खोती जा रही है।
बिहार के निराशाजनक चुनावी नतीजों ने इस हताशा को और बढ़ाया, जिसके बाद सोशल मीडिया पर एक आंकड़ा ट्रेंड करने लगा 'राहुल गांधी के आने के बाद कांग्रेस की 96वीं हार!'
यह 96 हार का आंकड़ा महज एक संख्या नहीं है। यह राजनीतिक सच्चाई है कि 2004 में अमेठी से राहुल गांधी के सक्रिय राजनीति में पदार्पण के बाद से अब तक, राष्ट्रीय, राज्य और उप-चुनावों को मिलाकर, कांग्रेस हार का शतक पूरा करने की दहलीज पर खड़ी है। यह सिलसिला 2025 तक भी थमने का नाम नहीं ले रहा है, और यह सीधे तौर पर एक ही सवाल खड़ा करता है- क्या राहुल गांधी का नेतृत्व ही कांग्रेस के पतन का मूल कारण है, या वह पार्टी के लिए 'अभिशाप' बन गए हैं?
पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी जैसे नेताओं ने जिस पार्टी को सत्ता का पर्याय बनाया था, वह आज पहचान, प्रभाव और आत्मविश्वास तीनों खो रही है। 2014 के बाद देश के मतदाता बदल गए हैं, उनकी सोच बदल गई है- अब वे खानदान या नाम नहीं, बल्कि काम और विजन देखते हैं।
कांग्रेस के चुनावी विनाश की कहानी इन आंकड़ों में छिपी है:
• 2014 लोकसभा: सिर्फ 44 सीटें- भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी चुनावी हार, जिसने कांग्रेस को लोकसभा में प्रभावी विपक्ष का दर्जा भी नहीं लेने दिया।
• 2019 लोकसभा: महज 52 सीटों पर सिमट गई, जिसने साबित कर दिया कि 2014 की हार कोई दुर्घटना नहीं, बल्कि राजनीतिक ट्रेंड था।
• 2024 लोकसभा: 99 सीटों तक पहुंचकर थोड़ा सुधार हुआ, लेकिन यह सत्ता से कोसों दूर, और पार्टी में प्रभावी नेतृत्व की कमी को उजागर करता रहा।
राज्य स्तर पर, महाराष्ट्र, हरियाणा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में लगातार झटके लगे हैं। आज, 13 राज्यों में कांग्रेस का एक भी विधायक नहीं बचा है। यह सच्चाई ही बीजेपी के कांग्रेस मुक्त भारत वाले नारे को सच करती दिख रही है।
वंशवाद की बेड़ियां: क्यों राहुल गांधी को झेलने को मजबूर हैं काबिल नेता?
सबसे बड़ा और कड़वा सवाल यही है कि पार्टी में प्रियंका गांधी, पी चिदंबरम, शशि थरूर, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, भूपेश बघेल, सचिन पायलट जैसे एक से बढ़कर एक काबिल नेता होने के बावजूद, वे सब राहुल गांधी के इर्द-गिर्द ही क्यों चक्कर काटते रहते हैं?
'फैमिली' का मालिकपन: यह कड़वी सच्चाई है कि कांग्रेस आज एक परिवार-केंद्रित पार्टी बनकर रह गई है। पार्टी का असली मालिक 'फैमिली' (गांधी परिवार) है। नेहरू-गांधी परिवार की पकड़ इतनी मजबूत है कि कोई भी नेता उसके साए से बाहर नहीं निकल पाता।
योग्यता पर वंश का वर्चस्व: कई लोग मानते हैं कि राहुल गांधी में वो जन्मजात नेता के गुण नहीं हैं जो इंदिरा गांधी में थे, वो राजनीतिक कौशल नहीं जो राजीव गांधी में थी और न ही वो दूरदर्शिता जो नेहरू में थी। इसके बावजूद, उन्हें झेलना पार्टी की मजबूरी बन गई है, क्योंकि केवल गांधी परिवार ही वह राष्ट्रीय चेहरा प्रदान करता है जो विभिन्न गुटों को एक साथ बांधे रख सके। यह 'वंश' की आस्था है, न कि 'योग्यता' की स्वीकृति।
आंतरिक लोकतंत्र का अभाव: पार्टी में चुनावों की कमी और 'हाई कमांड' पर अत्यधिक निर्भरता ने एक ऐसा माहौल बनाया है, जहां सलाह देने वाले की जगह 'हां' में हां मिलाने वाले को तरजीह मिलती है। आलोचना करने वाले को हाशिए पर डाल दिया जाता है।
नेतृत्व शैली का संकट: पार्ट टाइम राजनीति और नकारात्मक विमर्श
राहुल गांधी की सबसे बड़ी चुनौती उनकी छवि और नेतृत्व शैली रही है। विरोधी दलों ने उन्हें सीरियस ना होने वाला नेता बताया, और कई लोग 'पप्पू' नाम देकर उनका मजाक भी उड़ाते हैं। इसके बावजूद, वह हार को गंभीरता से नहीं लेते।
नकारात्मक राजनीति का जाल: राहुल गांधी की राजनीति हमेशा नकारात्मकता पर केंद्रित रही है। 'मोदी-मोदी', 'अदानी-अदानी', 'EVM-EVM' और 'वोट चोरी' पर उनका अत्यधिक फोकस रहा है। वह सरकार की आलोचना और सवाल उठाने तक सीमित रहे हैं, लेकिन जनता के सामने सकारात्मक दृष्टिकोण और आकर्षक वैकल्पिक विजन पेश करने में बुरी तरह विफल रहे हैं। एक प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार से देश समाधान चाहता है, न कि केवल सवाल।
पार्ट टाइम नेतृत्व: बार-बार राजनीतिक अवकाश लेना और अध्यक्ष पद छोड़कर पर्दे के पीछे से काम करना पार्टी कार्यकर्ताओं में भ्रम और निराशा पैदा करता है। इस अनिर्णय ने पार्टी में एक स्थायी, पूर्णकालिक और निर्णायक अध्यक्ष के नेतृत्व में काम करने की प्रक्रिया को बाधित किया है।
वैचारिक दुविधा: भाजपा के हिंदुत्व के सामने, कांग्रेस ने जब भी 'सॉफ्ट हिंदुत्व' का रास्ता अपनाया, वह दोनों ओर से चोटिल हुई। हिंदू वोटर ने इसे दिखावा माना, और अल्पसंख्यक वोटर ने पार्टी को कमज़ोर और अवसरवादी माना।
चाटुकारिता का अभेद्य कवच: सच्चाई बोलने वाला बाहर
पार्टी के सैकड़ों सक्षम नेताओं के छोड़ने का सबसे बड़ा कारण राहुल गांधी की आंतरिक टीम यानी कोर ग्रुप और चाटुकारिता का राज है।
नियुक्तों का वर्चस्व: राहुल गांधी के आसपास आजकल सिर्फ चार लोग दिखते हैं- केसी वेणुगोपाल, जयराम रमेश, सुप्रिया श्रीनेत, बीवी श्रीनिवास जो चुने हुए नहीं हैं, बल्कि नियुक्त नेता हैं। इनकी कुर्सी राहुल गांधी की कृपा पर टिकी है। इनमें से कोई चुनाव जीतकर नहीं आया है।
खोखला फीडबैक: यह टीम राहुल को जमीनी फीडबैक देने की बजाय उन्हें वही सुनाती है जो वे सुनना चाहते हैं। ये लोग कभी राहुल गांधी को यह नहीं बताते कि गलती कहां हो रही है।
पलायन का सैलाब: इस चाटुकारों के कवच और आंतरिक लोकतंत्र के अभाव से तंग आकर कैप्टन अमरिंदर सिंह, जितिन प्रसाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया, हिमंता बिस्वा सरमा, गुलाम नबी आजाद जैसे दर्जनों नेता पार्टी छोड़कर जा चुके हैं। जो बचे हैं, वे या तो चाटुकार हैं या मजबूरी में हैं।
कांग्रेस अब NGO या राजनीतिक पार्टी?
कांग्रेस पर ये भी आरोप लगता रहा है कि पार्टी अब एक फैमिली रन NGO बन गई है, जो जॉर्ज सोरोस और OCCRP जैसे संगठनों के एजेंडे पर चल रही है।
यह आरोप इसलिए बल पकड़ता है क्योंकि कांग्रेस का फोकस अक्सर संस्थागत लोकतंत्र और मानवाधिकारों जैसे विषयों पर ज्यादा दिखता है, जबकि रोजगार, गरीबी, और महंगाई जैसे सीधे और जमीनी मुद्दों पर उसका विमर्श कमजोर पड़ जाता है।
भारत जोड़ो यात्रा को भी कई लोगों ने हिंदू विरोधी या तुष्टिकरण की राजनीति के रूप में देखा। नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस का पारंपरिक हिंदू वोट बैंक खिसकता गया और मिडिल क्लास ने भी उससे दूरी बना ली।
कांग्रेस का अंत निकट!
अगर यही वंशवाद, चाटुकारिता और संगठनात्मक शून्यता चलती रही, तो कई राजनीतिक विश्लेषकों का अनुमान है कि अगले 5-7 सालों में कांग्रेस कई टुकड़ों में बंट जाएगी। बिना बड़े बदलाव के, 2029 आम चुनाव में कांग्रेस के 50 सीटों से नीचे जाने का खतरा है।
कांग्रेस के पतन के लिए राहुल गांधी को एकमात्र कारण बताना सरलीकरण होगा, लेकिन वह निश्चित रूप से सबसे बड़े और उत्प्रेरक कारण हैं। उनकी नेतृत्व शैली, नकारात्मक राजनीति, और संगठनात्मक बदलाव लाने में उनकी विफलता ने पार्टी के पुराने घावों को नासूर बना दिया है।
कई पुराने कांग्रेसी अब खुलकर कह रहे हैं कि राहुल जी को अब आराम करना चाहिए। देश ने 96 बार बता दिया है कि वह प्रधानमंत्री बनने के लायक नहीं हैं।
अब देखना यह है कि 100 हार का शतक पूरा होने से पहले कांग्रेस जागती है या नहीं। जब तक राहुल गांधी कुर्सी नहीं छोड़ेंगे या पार्टी में 'गांधी परिवार से बाहर' कोई बड़ा, सक्षम और निर्णायक नेता नहीं आएगा, तब तक कांग्रेस का अस्तित्व खतरे में बना रहेगा।

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